5 राज्यों के जनादेश ने ध्वस्त कर दिए भारतीय राजनीति के ये मिथक

स्टोरी हाइलाइट्स
- टूट रही हैं बनी-बनाई धारणाएं
- काम कर गया केजरीवाल का New politics
- जाति का फैक्टर का असर कम हो रहा है
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनाव नतीजों ने भारतीय राजनीति की कई बनी-बनाई धारणाओं को ध्वस्त कर दिया. इन नतीजों ने ये संदेश दिया कि भारत में राजनीति का पैमाना बदल रहा है. अब वोटर्स सियासत की बनी बनाई Rhetoric पर यकीन नहीं करते हैं. ये जमाना सोशल मीडिया का है. सोशल ट्रेंड के दौर में मतदाता नेता को लेकर अपनी राय बनाने में देर नहीं लगाता है.
इस चुनाव के जरिए मतदाताओं ने संदेश दिया है कि उसे राजनीति की घिसी पिटी धारणाओं को बदलने में गुरेज नहीं है. ये धारणाएं क्या हैं? ये धारणाएं राजनीतिक दलों की उस सोच को तोड़ती है जो कहती है कि जनता के पास विकल्प नहीं है. जनता घूम फिरकर पहले पार्टी X को वोट देगी, 5 साल बाद लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं होगी फिर लोग इस पार्टी से नाराज होंगे और उसे हटाकर पार्टी Y को ले आएंगे और चुनाव दर चुनाव ये सिलसिला चलता रहेगा.
टूट रहे हैं मिथक
पर इस चुनाव ने बताया है कि अब वोटर का मिजाज ये नहीं रहा है. अगर उसकी उम्मीदें पूरी नहीं हुई तो वो X या Y की बजाय पार्टी z को सत्ता देने से गुरेज नहीं करेगा.
पंजाब इसी धारणा का उदाहरण हुआ करता था. यहां लंबे समय से अकाली दल और कांग्रेस बारी-बारी से सत्ता में आते थे. लेकिन आम आदमी पार्टी ने इस धारणा को ध्वस्त कर दिया. AAP ने न सिर्फ कांग्रेस से सत्ता छीन ली बल्कि अकाली दल को भी विधानसभा से लगभग बाहर ही कर दिया. इस चुनाव में 117 सदस्यों वाली विधानसभा में अकाली दल के मात्र 3 विधायक ही जीत पाए. जबकि AAP ने 92 सीटें जीती है.
एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर का असर कम
पहले भारत की राजनीति में एक आम धारणा ये थी कि सत्ता में रहने वाली पार्टी को एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर भुगतना पड़ता है, लेकिन ये चुनाव यह भी बताता है कि अब एंटी इंकम्बेंसी के खास पैटर्न पर नहीं चलती है. अगर वोटर्स का मिजाज है तो उसे लगातार किसी पार्टी को सत्ता देने में गुरेज नहीं है.
यूपी, उत्तराखंड, गोवा इसी का उदाहरण इसी धारणा का उदाहरण है. गोवा में बीजेपी तीसरी बार सत्ता में आने में सफल रही है, उत्तराखंड में कई प्रयोगों के बाद बीजेपी लगातार दूसरी बार कमबैक किया है तो देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में भी बीजेपी ने एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर के लहर को कामयाबी पूर्वक रोक दिया है और बंपर मतों के साथ सत्ता में वापसी की है.
दरअसल आज का वोटर्स किसी खास खांचे में ढला नहीं है. पंजाब में कांग्रेस पूर्व सीएम चरणजीत सिंह चन्नी की दलित आइडेंटिटी को लेकर बड़ा मुद्दा बनाई और सबसे ज्यादा दलित वोटरों वाले सूबे में इसे अपना ट्रंप कार्ड मानकर चल रही थी लेकिन वोटर्स का इस पर कोई असर नहीं हुआ. चन्नी न सिर्फ एक बल्कि दो दो सीटों से हार गए.
केजरीवाल New Politics का BUZZ बनाने करने में कायम रहे
इस बार हुए पंजाब चुनाव के नतीजे कई मायनों में खास हैं. पंजाब नतीजों ने बता दिया है कि जरूरी नहीं है कि वोट सीएम के चेहरे पर ही दिया जाए. पंजाब में भगवंत मान भले ही आम आदमी पार्टी की ओर से सीएम के उम्मीदवार थे लेकिन असली कमान केजरीवाल के हाथों में ही थी. सिख बहुल पंजाब में 117 सीटों में अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने 92 सीटें जीतकर चमत्कार सरीखा ही काम किया है.
अब केजरीवाल की ये New Politics क्या है? इसे यूं समझा जाना चाहिए. केजरीवाल पंजाब में बंपर बहुमत पाने के बाद दिल्ली के हनुमान मंदिर दर्शन करने पहुंचे. यही केजरीवाल की नई राजनीति है. केजरीवाल की नई राजनीति यही है कि इसका कोई पैटर्न नहीं है. केजरीवाल वो हर चीज (Antics) करने में सहज हैं जिसकी अपील जनता तक हो. यही वजह रही कि जब पंजाब में धर्मग्रंथों की बेअदबी के नाम वोटरों की गोलबंदी हो रही थी उस समय भी वहां के मतदाताओं ने केजरीवाल की पार्टी को वोट दिया, जो हिन्दी बहुल दिल्ली से जाकर पंजाब में किस्मत आजमा रही थी. दरअसल आम आदमी पार्टी ने शुरू से ही ये नैरेटिव सेट किया कि पिछले बीस साल से जनता ने अकाली दल, कांग्रेस का शासन देखा है, इसलिए इस बार नई पार्टी को वोट देकर देखा जाए. लोगों को केजरीवाल का ये नैरेटिव पसंद आया.
केजरीवाल ब्रांड की इसी राजनीति के नाम पर AAP पंजाब में 92 सीटें बटोर ले जाती है. जबकि एक निश्चित ढर्रे पर चल रहे बादल कुनबे का पंजाब की राजनीति से सफाया हो जाता है.
रिवायती राजनीति को छोड़ लोगों ने नया विकल्प चुना
खुद चुनाव हारने वाले नवजोत सिंह सिद्धू ने इस नई राजनीति को स्वीकार किया है. पंजाब के नतीजों पर सिद्धू ने कहा कि लोगों ने रिवायती राजनीति और पार्टियों को छोड़कर पंजाब में एक नए ऑप्शन को चुना. पंजाब की राजनीति बदलाव की थी और पंजाब के लोगों को बधाई देता हूं कि उन्होंने एक बढ़िया निर्णय लिया है.
जाति...जाने लगी है?
राजनीतिक परिपेक्ष्य में एक कहावत है कि भारत में जाति है कि जाती नहीं है. लेकिन इस चुनाव ने बताया है कि ऐसा नहीं है. जाति...जाती है, जाति फैक्टर जाने लगा है. अब मतदाता जाति के नाम पर वोट करने से पहले अपने फैसले को कई पैमानों पर तौलता है. पहले राजनीतिक पार्टियां विधायकी का टिकट देते समय कास्ट फैक्टर को इस तरह तौलती थी कि अगर फलां व्यक्ति को टिकट मिल गया तो उसकी जाति से जुड़े सारे लोग इसी पार्टी को वोट देंगे.
लेकिन जाति के नाम पर वोट का एकमुश्त ट्रांसफर गुजरे जमाने की बात है. अब एक घर में दो दलों के समर्थक हैं, पति और पत्नी के वोट अलग-अलग पैमाने से तय होते हैं. मां और बेटे, पिता और बेटी अलग-अलग पार्टियों में हैं. एक घर में पति के लिए भले ही जातीय गौरव बड़ी बात हो लेकिन पत्नी वोट देते समय उन मुद्दों को देखती है जिससे उसकी गृहस्थी और रसोई आसान हो जाए.
उत्तर प्रदेश में इस बार कई नेता अपनी जातियों का वोट अपनी पार्टी को ट्रांसफर नहीं करा सके. इसका नतीजा अखिलेश यादव को भुगतना पड़ा है. मतदाता ने अपने बदले तेवर से राजनीतिक दलों को संदेश तो दिया ही है साथ ही यह भी बता दिया है कि ये राजनीति के नए दौर की शुरुआत है.
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source https://www.aajtak.in/india/politics/story/election-result-2022-myth-indian-politics-pm-narendra-modi-arvind-kejriwal-ntc-1426912-2022-03-11?utm_source=rssfeed
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