पर्ची का प्रेशर, लिफाफे का खेल... Twin Towers के साथ ही टूटा अफसरों-बिल्डर का अहंकार!

Twin Towers demolition: नोएडा के ट्विन टावर रविवार को जमींदोज कर दिए गए. धूल के गुबार ने एक गहरी चादर ओढ़ी, कई किलोमीटर के दायरे को आगोश में ले लिया. जहां तक धूल नहीं पहुंच पाई वहां तक उसकी गंध पहुंची. लोगों में एक उत्साह था, देखने की तमन्ना थी, जिसे अपने-अपने तरीके से कई लोग पूरा करने में सफल रहे. जो नजदीक नहीं जा सकते थे उन्होंने टीवी पर इसे लाइव देखा. अब बादल छंटने लगे हैं. धूल जमने लगी है. लेकिन सवाल आज भी हैं. जिनके जवाब की तलाश और तेज हो गई है.
सवालों के घेरे में तत्कालीन सरकारें और प्रशासन है, ट्विन टावर के टूटने के साथ बड़ी शिद्दत से यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या अकेले बिल्डर इसका जिम्मेदार था? क्या उसने अपने मन से टावर खड़ा कर लिया? क्या उसने अथॉरिटी की मंजूरी नहीं ली? अगर उसने सरकार के बढ़ाए एफएआर से अपना हित साधा तो क्या गलत किया? हाई कोर्ट में याचिका दायर होने के बाद कौन लोग थे बिल्डर को समझाने वाले कि काम तेज कर दो, 'कोई बिल्डिंग गिरी है क्या भारत में'.
'सुप्रीम कोर्ट कोई रास्ता निकाल देगा' अरे हम लोग हैं न कुछ नहीं होगा...और परिणाम क्या हुआ, टावरों की ऊंचाई बढ़ती गई, इसके साथ ही रेजिडेंट्स का आक्रोश भी. परिणाम भी सबके सामने है. आखिर ये खेल हुआ कैसे?
'पर्ची' के साथ 'लिफाफे' ने पकड़ी रफ्तार
नाम न छापने की शर्त पर इन घटनाओं को नजदीक से देखने वाले नोएडा के एक वरिष्ठ पत्रकार ने इस खेल के बारे में बताया. समय 2004, सूबे में बनी सरकार को पता था कि नोएडा और ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी पैसे की खान पर बैठी हैं. पहले अथॉरिटी खुद के फ्लैट बनाती थी और प्लॉट का आवंटन करती थी. लेकिन इसमें रिस्क ज्यादा था, बिना कोर्ट कचहरी के आवंटन पूरा ही नहीं होता था. धांधली और भाई भतीजावाद के आरोप लगते थे. नेताओं-मंत्रियों का दवाब अलग से रहता, किसी के साले को, किसी की साली को फ्लैट चाहिए होता था. नेताओं की इच्छा पूरी करने में अफसरों के अपने छूट जाते. हालात ऐसे हो गए कि अफसर इसकी काट खोजने लगे. वह सरकार को यह समझाने में सफल रहे कि अब खुद के फ्लैट बनाने में झंझट और बदनामी के सिवा कुछ नहीं है. हम कल्याणकारी राज्य हैं तो बहुत फायदा भी नहीं कमा सकते. इससे अच्छा है कि बिल्डरों को जमीनें आवंटित कर दी जाएं वो फ्लैट बनाकर बेचें, हम रेग्युलेटिंग अथॉरिटी रहेंगे. बाकी देख लिया जाएगा. और यहीं से असली खेल शुरू हुआ. यह वो दौर था जब यूपी में बीजेपी अपने वजूद के लिए लड़ रही थी और सपा-बसपा की सरकारों के बनने बिगड़ने का दौर जारी था.
शुरू हुई अफसरों की खोज
ऐसे अफसर खोजे जाने लगे जो लखनऊ के आदेश को किसी भी शर्त पर ना न कह सकें. उन्हें अपनी टीम बनाने की भी आजादी दी गई. प्लॉट की स्कीम आती, बिल्डर उसमें अप्लाई करते. उधर लखनऊ से एक 'पर्ची' चलती, उसके मुताबिक ही आवंटन होता. उससे अलग चलने की हिम्मत किसी की नहीं होती. बिल्डर अपनी जरूरतें बताते, उसके मुताबिक खिदमत करते और लखनऊ से आदेश पारित हो जाता. यहां के अधिकारी अपना लिफाफा पाकर ही संतुष्ट हो जाते कि इनसे पंगा कौन ले. अगर ये इतना बड़ा आदेश पारित करा सकते हैं तो उनके ट्रांसफर का आदेश पारित कराने में कितना समय लगेगा. सरकारों को खेल में मजा आने लगा था. इसमें किसी को दिक्कत नहीं थी. बिल्डर खुश, अफसर खुश, लोगों को मकान मिलने का रास्ता साफ. सब एकदम सलीके से चल रहा था. लूप होल्स भी नहीं, हिसाब काले का लेकिन बाहर सब एकदम व्हाइट.
सुपरटेक ने ऐसे किया खेल
ऐसा ही खेल सुपरटेक ने किया. 2004 में जमीन का आवंटन कराया, धीरे-धीरे उसने अपने जरूरत भर की जमीन अथॉरिटी से अलॉट करा लीं. तुर्रा यह कि नापने में जमीन इधर-उधर हो गई थी तो ये बचा हिस्सा भी उसको ही दे दिया जाए. अहंकार में दोनों थे, अथॉरिटी अफसर भी और बिल्डर भी. एमराल्ड कोर्ट के लोगों को बताया गया था कि यह सामने की जमीन पर पार्क होगा. आपके घर की धूप और हवा पर कोई असर नहीं पड़ेगा लेकिन वहां दो टावर लॉन्च कर दिए गए. 2006 में अतिरिक्त जमीन अलॉट कराने के बाद बिल्डर अलग नशे में था. उसने अलग से 2 एक्स्ट्रा टावर लॉन्च कर दिए. बताया गया ये 22 मंजिला होंगे. लेकिन इरादा कुछ और था. लखनऊ से एक आदेश चला एफएआर खरीदकर बिल्डिंग की ऊंचाई 33 फीसदी बढ़ा सकते हो. सोचने वाली बात यह थी कि अगर नींव मजबूत न होगी तो ऊंचाई कैसे बढ़ा लेंगे. यहां तो अंदरखाने कई तरह के खेल चल रहे थे. बिल्डिंग 24 मंजिला बढ़ाने की अनुमति मिल गई यानी 73 मीटर.
जब धैर्य जवाब देने लगा
अब एमराल्ड कोर्ट के लोगों का धैर्य जवाब देने लगा था लेकिन वो बेबस थे. आपस में मीटिंग चल रही थी लेकिन कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. कौन इस पचड़े में पड़े. लेकिन जब रिवाइज्ड प्लान में बिल्डिंगों की ऊंचाई 121 मीटर यानी 39 और 40 मंजिला करने की मंजूरी दे दी गई तो निवासियों के सब्र का बांध टूट गया, वो अथॉरिटी की तरफ दौड़े, वहां से नक्शा मांगा गया कि हम देखना चाहते हैं कि सुपरटेक क्या बना रहा है.
निर्लज्ज अफसरों का जवाब था कि बिल्डर से पूछकर बताएंगे कि नक्शा रेजिडेंट्स को देना है या नहीं. जैसे अफसर नहीं बिल्डर अथॉरिटी चला रहा हो. वकीलों से राय ली जाने लगी. अब क्या किया जा सकता है. बिल्डर और अथॉरिटी दोनों के खिलाफ लड़ना था. कुछ लोग पहले से हतोत्साहित करने में लगे थे कि कौन इनसे जीत पाएगा लेकिन लोगों को कोर्ट पर भरोसा था, उन्हें यकीन था कि वहां से न्याय मिलेगा.
इन दो प्वाइंट पर मात खा गया बिल्डर
बिल्डर ने वैसे तो कई अनियमितताएं बरती थीं लेकिन दो सवालों के जवाब न बिल्डर के पास थे न अथॉरिटी के पास. पहला- अगर किसी खास उद्देश्य के लिए जमीन छोड़ी गई है तो बिना बिल्डिंग बायलाज बदले उस पर कुछ और नहीं बनाया जा सकता. और दूसरा यह परिवर्तन तभी होगा जब रेजिडेंट्स इसकी अनुमति देंगे. बिल्डर ने यह दोनों काम नहीं किए थे, क्योंकि उसे लग ही नहीं रहा था कि अफसरों और सरकार से ऊपर भी कोई है. अफसर बिल्डर को समझाते रहे कि कुछ नहीं होगा. बनी बनाई बिल्डिंग को गिराने का आदेश देना इतना आसान है क्या, हां फाइन लग सकता है. बिल्डर यह सोचता रहा कि अगर फाइन लगा तो कौन अपने घर से देना है जिन लोगों ने बुकिंग कराई है उससे ले लेंगे, अपना क्या?
याचिका दायर करते ही बढ़ गई निर्माण की स्पीड
2012 में हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी गई. इधर निर्माण की स्पीड बढ़ गई. एमराल्ड कोर्ट के लोग बताते हैं कि बिल्डर चाहता था कि फैसले से पहले वह हर हाल में टावर पूरे कर ले, मजदूर बढ़ा दिए गए, गाड़ियों की कतारें लंबी हो गईं. रात-दिन काम होने लगा, जब कोर्ट में लोग गए थे तब 13 मंजिलें ही बनी थीं. कोर्ट ने केस दर्ज कर पुलिस को जांच करने को कहा. जांच रिपोर्ट में सामने आया कि धांधली हुई है. हर नियम कानून ताक पर रखकर काम किया गया है. 2014 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इसे गिराने का आदेश दे दिया, तब एक टावर 32 और दूसरा 30 मंजिला बन चुका था.
इस आदेश के साथ ही काम रुक गया. बिल्डर ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के निर्णय को बरकार रखा और सभी आवंटियों के पैसे ब्याज समेत वापस करने के आदेश दिए. बिल्डर ने यहां भी खेल किया लोगों को कहीं और फ्लैट लेने का ऑफर दिया. एक्स्ट्रा पैसे वसूल लिए. कुछ लोगों ने अपना बजट कम बताया तो उन्हें कम पैसे की प्रॉपर्टी दी गई और जो बचा अमाउंट वापस करना था उसके लिए वो आज भी चक्कर काट रहे हैं. कुछ लोग आज भी ऐसे हैं जिन्हें रिफंड नहीं मिला है. अब तो इनसॉल्वेंसी का बहाना है.
ट्विन टावर गिरा दिए गए, इसके पैसे भी बिल्डर ने खर्च किए, उसे तो सजा मिल गई लेकिन जिन अफसरों, सरकारों की नाक के नीचे ये खेल चलता रहा उनका क्या. क्या इसकी सीबीआई जांच नहीं होनी चाहिए थी आखिर नियमों को ताक पर रखकर ऐसे आदेश कैसे पारित किए जाते रहे. जांच भी किस तरह की हो रही है. एक एसआईटी और एक विजिलेंस. राज्य सरकारों की दोनों एजेंसियां हैं. किसी की ईमानदारी पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते लेकिन देर क्यों हो रही है. कितनी फाइलें हैं जिसका बोझ नहीं संभल पा रहा है.
आजाद हैं असली गुनहगार
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद यूपी सरकार ने इसका जांच के लिए चार सदस्यीय कमेटी बनाई जिसकी जांच के आधार पर 26 लोगों के खिलाफ केस दर्ज किया गया. सुपरटेक के डायरेक्टर और आर्किटेक्ट के खिलाफ भी मामला दर्ज हुआ. अथॉरिटी के प्लानिंग विभाग के अफसरों, फायर डिपार्टमेंट के अफसरों के खिलाफ भी मामला बना लेकिन अभी यह अंजाम तक नहीं पहुंचा. फायर डिपार्टमेंट के कई लोग रिटायर हो चुके हैं. दूसरे डिपार्टमेंट के 2 लोगों का निधन हो चुका है लेकिन यह सत्य है कि कोई इस आरोप में जेल में नहीं है. बस जांच चल रही है.
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